Tuesday, 7 August 2012

कथादेश में आई कहानी

पागी
- दिनेश चारण

चैत का महीना, पूनम की दूधिया रात रैनादे के साथ बिताकर मन्द-मन्द लाल-गुलाबी मुस्कान बिखेरता सूरज उग रहा था, काल को चलायमान रखने के लिए। सूरज की रोशनी के साथ पौ फटते ही गाँव में कोलाहल मच गया कि बिरदा के बैल रात में चोर खोल कर ले गए है।
चार दिन पहले ही तिलवाड़ा के मल्लीनाथ के मेले के अन्तिम दिन चैत सुदी ग्यारस को बिरदा अपनी पत्नी रुक्मा के माथे का बोर बेचकर बारह सौ सत्तर रुपये में नागौर के एक व्यापारी से बैलों की जोड़ी खरीद कर लाया था। बैल क्या थे.....। सींग न हो तो मालाणी घोड़े की जोड़ के थे। भरे-पूरे पुट्ठे, चारों पैरों की सधी चाल, पारख करो तो सभी सुलक्षण कोई कमी-बेसी नहीं।
बिरदा गया तो था मल्लीनाथ बाबा के दर्शन करने, पर बैलों को देखते ही उन पर उसका मन आ गया। बिरदा की बैलों की ओळखाण इतनी जबरदस्त थी कि उसने उनके जोड़ के बैल आज तक नहीं देखे थे। चार पहर में आठ बीघा जमीन तो जोत ही दे और चड़स पर ढ़ाई घड़ी पहले न रुके जैसे।
मेला तो मल्लीनाथ के दर्शनों को भरा था पर मेले में आने वाला हर व्यक्ति उन बैलों की चर्चा सुन उन्हें देखने आता। लोग आते, मोल-भाव करते और चलते बनते। कई लोगों ने खरीदने की कोशिश की पर बारह सौ सत्तर रुपये से व्यापारी एक भी नया पैसा कम लेने को तैयार नहीं और कहता - ‘‘बेटो से ज्यादा दूध-घी इन्हें खिलाया है, तीन घाणी तेल व मण खोपरों की कचर खिलाई है इन्हें, तभी तो देखो पुट्ठे पर मक्खी बैठे तो फिसल जाए।
बिरदा के मन में तो बैल ऐसे बैठे ही उधार लेकर भी व्यापारी के माँगें रुपये देने को वह तैयार हो गया। पास में तो खोटा टका भी था नहीं, पर उसके हौसले ने सौदा पक्का कर लिया और साँझ तक की मोहलत लेकर पैसे लेने घर चल दिया।
घर पहुँचते ही - ‘‘रुक्मा मेळा में बळद देख आयो हूँ, शिवजी रे नांदियाँ री जोड़ रा बळद है, डेढ़ भेंत री थुई और पूंछ देखो तो ठाकुरजी रे मिन्दर रा चँवर तांई सफेद है।ण्ण्ण् घर में कित्ता रुपिया है?’’
बक्से, डिब्बों आदि में देखकर रुक्मा ने कहा ‘सित्तर रुपिया है।’
जरूरत बारह सौ सत्तर की थी तो रुक्मा से कहा - ‘‘थारी रकमा दे दे तो आज कैई बरसां बाद मन में बळद मोलावण री आस पूरी वै (व्है) जावै।’’
रुक्मा ने माथे पर से सोने का बोर उतार कर दे दिया बाकी तो कान, नाक में सुहाग की प्रतीक चांदी की चीजें थीं।
गाँव के साहूकार को बारह सौ रुपये में बेचकर घर से सत्तर रुपये के साथ सहेजकर दिन ढ़लते-ढ़लते मेले में पहुँचकर कौल के मुताबिक व्यापारी को पूरी रकम देकर, दाहिने हाथ में बैलों की पगहिया थामे बिरदा गाँव आ गया।
रूक्मा पहले से ही बैलों को बधाने की तैयारी कर चुकी थी। आते ही कुमकुम का तिलक निकालकर गुड़ की डलियाँ बैलों के मुँह में देकर बधाकर घर में लिया। घर तो क्या था खींपड़े से छाया हुआ छप्पर था, छप्पर के आगे बैलों को बांध दिया।
आज बिरदा की बरसों की मुराद पूरी हुई और उत्साह इतना कि सीना सामान्य से पाँच इंच ज्यादा फूला हुआ। गाँव-गवाड़ी के लोग बैलों को देखने आते व कहते कि ‘‘बळद कांई बिरदौ तो हीरा टाल अर लायौ है।’’
बैलों की चर्चा सुन आस-पास के गाँव वाले भी बैलों को देखने आने लगे। बैलों को किसी की नजर न लग जाये इसलिए रूक्मा साँझ-सवेरे नौन-मिर्च करती और बैलों के काले रंग का टीका लगाती।
चार दिन तक गाँव में मेले सा माहौल रहा, पाँचवीं सुबह तो खूंटा खाली था। बैलों की चोरी की खबर फैलते ही गाँव के सभी लोग इकट्ठे हुए और गाँव के ठाकुर गंगासिंह भी वहाँ आ गये थे। तब तक कुछ लोगों ने खूंटे के आस-पास जो पैरों के निशान थे उन्हें तगारी से ढ़क दिया था और कहने लगे कि पागी को बुलाओ।
ठाकुर गंगासिंह ने बिशना पागी को बुलावा भिजवा दिया। आस-पास के इलाके में उसकी इस विद्या का कोई सानी नहीं था।
बिशना ने आते ही पांवों के निशान देखकर कह दिया कि ‘‘बळद तो कंजरगढ़ रा कंजर लैगा है थोड़ा दिना पै्यली राईका री ढ़ाणी में चोरी करण वाला ऐड़ा ही निसाण हा, और कंजर पकड़ में आया।’’ कंजर सदियों से घुमक्कड़ जाति रही है, अपने डेरों के साथ जीवन-यापन के लिए इधर-उधर भटकते रहते हैं छोटा-मोटा काम मिल गया तो कर लिया, नहीं तो माँग कर खा लेते हैं। पिछले कुछ समय से कुछ डेरे स्थायी रूप से बस गये हैं और कुछ आज भी अपने डेरों के साथ यायावरी करते हैं।
वीरमगढ़ से पन्द्रह कोस की दूरी पर है कंजरगढ़ - अरावली की गोद में बसा। कंजरों की बस्ती के कारण ही नाम पड़ा कंजरगढ़। गढ़ तो वहां कोई था नहीं थे तो बीस-पच्चीस डेरे कंजरों के और आतंक इतना की किसी की उस इलाके में पाँव रखने की हिम्मत नहीं। दिन में माउड़ी (हथकढ़ी शराब) पीना और रात में चोरी चकारी करना पेशा बना लिया था, इन लोगों ने। पर वीरमगढ़ में चोरी कम ही करते थे, क्योंकि वहाँ के ठिकानेदार का डर था उन्हें, कभी की भी तो छोटी-मोटी चोरी जिसकी किसी ने परवाह नहीं की। अबकी बार दुस्साहस कर ही दिखाया।
पांवों के निशान ढूँढ़ते-ढूँढ़ते बिशना पागी आगे-आगे व ठाकुर सहित गांव के मोजीज लोग पीछे-पीछे। पाँवों के निशान छुपाने के लिए कंजर आड़े-तिरछे चले थे पर पागी की पारखी नजरों से कहाँ बचते। चलते-चलते पांवों के निशान कागली नदी के अन्दर चले गये।
अरावली के पहाड़ों का पानी बैसाख के महीने में भी रिसते-रिसते आ रहा था, घुटनों तक पानी भरा था पर पानी में निशान कैसे खोजे जाए। पर पागी के पागीपने की पारख भी तो आज ही होनी थी। जमीन पर पड़े निशान तो कोई खोज ले, असली पागी तो वह है जो पानी में निशान खोजे। सभी के एक साथ पानी में उतरने से पानी गंदा हो जायेगा इसलिए सबको किनारे पर रोक कर बिशना पागी ने धीरे-धीरे अपनी कला का हुनर दिखाते हुए पांवों के निशान खोजते हुए नदी पार कर सभी को आने का संकेत कर दिया।
सभी प्रशंसा कर रहे थे कि पानी में भी निशान खोज लिए जोरदार पागी है।
अब तो समस्या और भी विकट थी पथरीली जमीन आ गई थी उस पर पाँव के निशान कैसे खोजे जाए, पर पागी की पारखी नजरें ढूँढ़ती जा रही थीं कि सामने से पत्थरों की बौछारें होने लगी। देखा तो पता चला कि कंजरों की औरतों ने उन्हें रोकने के लिए पत्थर बरसाने शुरू कर दिये थे।
कंजरों को पता लग गया था कि वीरमगढ़ ठिकाने के लोग बैलों को खोजते-खोजते आ गये हैं, तो अपनी औरतों को वे उन्हें रोके रखने को कहकर बैलों को और भी आगे ले गये और पहाड़ियों में छिपाकर आ गये तब तक औरतों ने एक भी व्यक्ति को आगे नहीं बढ़ने दिया।
तभी एक अधेड़ उम्र का कंजर आगे आया और ठाकुर की ओर हाथ जोड़कर बोला - ‘‘हुकम माई-बाप आप हो। औ तो ध्यान ई कोनी हो, लुगायां जाणियौ कोई हमलो करण नै आया है। हुकम करौ कैंया पधारणो व्हियो।’’
‘‘आवण री जरूरत तो कोनी ही, पर थे काम ई ऐड़ा इज करो के आवणौ पड़ै’’ गंगासिंह ने कहा कि ‘‘कालै रात रा बिरदा रा बळद लाया हो जका पाछा कर दौ।’’
‘‘टाबरां री सौगन्ध जै म्हां बळद लाया व्हा तो। आ पड़ी बस्ती आप खुद देख लो।’’
क्यूं बिशना..... कंजर कांई कैवे है......?
पावों के निशान तो इसी बस्ती में आये हुए हैं बिशना के कहने पर ठाकुर ने चार मौजीज आदमियों को बस्ती में देखने को कहा।
थोड़ी देर में वे लौट आये व कहा कि बैल यहां तो नहीं है। ऐसी स्थिति में पागी की इज्जत का सवाल खड़ा हो गया। बिशना भी सकते में आ गया और गले में पड़ी चाँद लटकते गुंगियों की माला को हाथ से घुमाने लगा और सोचने लगा कि बैल आखिर गये कहा हैं। इतनी ही देर में कंजरों की औरतें बस्ती में लौट गई थीं।
बिशना कुछ सोच रहा था कि तभी कुदरत की मेहर हुई और विधाता की लीला कि तन्दूरे की मधुर स्वर लहरियाँ उसके कानों में पड़ी -
 ‘‘एक बार मिलजा रै बैरी यूँ पाछौ मत जा........
  बालपणे री प्रीत नै यूँ मत ना बिसरा.......।’’
पागी का अन्तस हिलोरे लेने लगा, रोम-रोम में बिजलियां सी दौड़ गई - यह तो सारंगी की आवाज है...... पर सारंगी यहां कैसे ?
आज से कोई पन्द्रह बरस पहले ण्ण्ण् वीरमगढ़ में कंजरों के कुछ डेरे आये थे। नीमली नाड़ी के पास बंजर पड़ी जमीन पर अपने डेरे डाले थे इन्होंने। नीमली नाड़ी नाम तो इस कारण पड़ा था कि नाड़ी के किनारे पर कभी एक विशाल नीम का पेड़ था, नीम तो अब नहीं रहा पर लोग आज भी उसे नीमली नाड़ी के नाम से ही जानते हैं।
इन डेरों से कन्जरों की औरतें व बच्चे सुबह-सुबह ही हाथों में तन्दूरे बजाते हुए लोकगीत गाते हुए घर-घर रोटी की याचना करते और लोग इन्हें रात का ठण्डा-बासी खाना दे देते। रोज इसी प्रकार याचना और ऐसे ही पेट पालना इनके जीवन का एक हिस्सा हो गया था।
बिशना की उम्र उस समय पन्द्रह बरस की होगी। उसके घर पर भी यह लोग मांगने आते थे। इनमें एक दस-बारह साल की चंचल लड़की थी, आँखें हिरणी जैसी और पपीहे सा कण्ठ। वह जिस-जिस घर के आगे जाकर गाती बिशना उसके साथ-साथ उसे सुनता चलता।
न जाने कौनसा आकर्षण उसे खींचता था कि कई बार वह उसके पीछे-पीछे उसके डेरे तक चला जाता था। वह जब डेरे में चली जाती और झोली में लाई सामग्री को सभी के साथ बांटकर खाने लगती बिशना डेरे के आस-पास घूमता रहता इसलिए की शायद वह यहाँ भी तन्दूरा बजाती होगी।
एक दिन सुबह जब वह लड़की माँगने आयी तो अपने घर से फटाक दो रोटी लेकर पहले ही खड़े बिशना ने गाने के बाद उससे पूछ ही लिया - तेरा नाम क्या है ?
सारंगी.....। और तेरा..... ?
बिषना..... एक बात बता सारंगी तू दूसरों के घर मत गाया बजाया कर, मेरे घर के सामने ही गाया-बजाया कर। मैं बहुत सी रोटियाँ तुझे रोज दे दूँगा।’
‘यहाँ भी गाऊँगी-बजाऊँगी और सभी जगह गाऊँगी-बजाऊँगी। तुम सुन लिया करो।’ खिल्लड़ सी हँसी हँसते हुए सारंगी आगे बढ़ गई, तन्दूरे पर गाती हुई -
भतालरिया-मगरिया रे......।’
रोज सुबह सारंगी आती उससे पहले रोटियाँ लेकर पागी तैयार, सुबह उठकर कुल्ला करे न करे सारंगी की रोटियाँ लेकर दरवाजे पर पहले ही बैठ जाता था। सारंगी की मछलियों की तरह उछलती, चमकती आँखों में पता नहीं क्या ढूँढ़ता रहता। धीरे-धीरे सारंगी भी उसके प्रति आकर्षित होने लगी। तो वह पागी से रुककर बातें भी करने लगी व उसकी फरमाइश पर चिरमी, कांगसियो, बिछूडो, सुवटियो जैसे लोकगीत भी गाने लगी।
बिशना रोटियों के साथ-साथ घर में बनी हुई चीजें भी चोरी-छिपे घर वालों से बचकर देने लगा। एक बार सारंगी ने अपने हाथों से गूँथी गुंगियों की माला बिशना को दी थी, जिसे फटाक से बिशना ने गले में डाल दिया और कमीज के नीचे छिपा लिया ताकि उसे देखकर कोई यह न पूछे कि कहाँ से लाया यह माला। यह सारा प्रेम सारंगी के प्रति था या उसके गीतों के प्रति यह न तो सारंगी जानती थी न बिशना। खैर प्रीत को तो कोई जान ही नहीं सकता कि देह से होती है या मन से और जब जान जाते हैं तो प्रीत-प्रीत न होकर छलावा हो जाती है।
जब कंजरों को डेरे जमाये कई दिन हो गये तो गाँव वालों को लगा कि कहीं ये लोग यहीं न बस जायें। इसलिए गाँव के कुछ प्रमुख लोगों ने जाकर कह दिया कि अब कई दिन हो गये हैं डेरे कहीं और ले जाओ। दो-चार दिन बाद ही कंजरों ने डेरे वहाँ से उठा लिए और कहीं और कूच कर गये। आकाश की छत के नीचे पलते इन बेघर लोगों का कोई ठिकाना तो था नहीं कि वहाँ जाते जिस ओर रास्ता ले जाये चले जाते और उस जमीन पर डेरे डाल देते जो बंजर हो, गांव से दूर हो या जहाँ पर रहने से किसी को परेशानी न हो।
सुबह से रोटियाँ लिए बैठा बिषना सारंगी की बाट जोह रहा था, सूरज सिर पर चढ़ आया है सारंगी आज आयी नहीं, कंजरों के डेरों से कोई आया भी नहीं। बिषना रोटियाँ कमीज के अन्दर छिपाकर चुप-चाप डेरों की ओर चल दिया। देखता है कि वहाँ कोई नहीं है।
आसपास लोगों से पूछता है तो पता चलता है कि कंजर डेरे लेकर कहीं और चले गये हैं। पूछा कहां गये हैं तो हँसते हुए एक व्यक्ति ने कहा उनका कोई ठिकाना तो है नहीं जिधर मुँह उठाया चल दिए। बिषना को सुनते ही लगा कि उसके कलेजे में किसी ने कटार घोंप दी हो। सारी शक्ति शून्य हो गई।
धीरे-धीरे डेरों के पास जाकर उसने वहाँ उनके जानवरों व आदमियों के पैरों के निशान देखे व उन निशानों के पीछे-पीछे चलने लगा। कई निशानों को उसने अपनी आँखों में उतार लिया और उनमें सारंगी के पांवों के निशान खोजने लगा। पर पहले से सारंगी के पाँवों के निशान पता हो तो पहचाने। पैरों के निशानों के पीछे चलते-चलते शाम ढल आई थी, सूर्यदेव विश्राम को जाने को उत्सुक थे और उनके चेहरे पर प्रसन्नता की लालिमा थी कि सारे दिन भर उजाला करके मनुष्यों को व जगत को भूत के साथ छोड़कर नये भविष्य को लेकर कल फिर आऊँगा। पर.... मनुष्य का न तो भूत पीछा छोड़ता है और न भविष्य उसे चाहने के अनुसार मिल पाता है।
इधर बिशना के घर वाले चिंतित की छोरे ने सुबह से कुछ खाया-पीया नहीं और कहाँ चला गया। इधर-उधर ढूँढ़ते रहे। किसी ने कहाँ कि आज कंजर गाँव छोड़ के गये है क्योंकि उन्हें निकलने को कह दिया था इसलिए नाराज होकर शायद वे उसे पकड़ कर अपने साथ ले गये हैं। घर वालों की हालत खराब हो रही थी कि कंजर बदमाश जात कहीं मार-मूर दे और पता ही नहीं चले।
पूरे गाँव में यह बात फैल गई की बिशना को कंजर उठा ले गये हैं। कंजर किधर गये किसी को पता नहीं। इधर रात हो गयी और इन सभी बातों से बेखबर बिषना दिन भर भटकता रहा और उसे भूख लग आई। कमीज में छिपाई रोटियाँ निकालकर खाने लगा कि याद आई ये तो सारंगी के लिए लाया था और उसने उन्हें वापस रख दिया।
रात गहराने लगी। इधर घर वालों ने पागी रतन जी का पता करवाया ण्ण्ण्ण् रतनजी गाँव में पागी थे जो पाँवों के निशान पहचानते थे। वे पाँवों के निशान पहचानते-पहचानते कंजरों के डेरों की तरफ चल दिये। तभी बिशना रास्ते में मिल गया। लोगों ने पूछा कि कौन लाया तुझे तो उसने बता दिया कि मैं तो कंजरांे के डेरे खोजते-खोजते भटक गया था।
घर आते ही उसे पूरी बात का पता चला कि रतनजी पाँवों के निशान खोजते-खोजते उस तक पहुँचे थे।
दूसरे दिन वह रतनजी के पास गया व उनसे पाँवों के निशान खोजने की विद्या सिखाने को कहा। उन्होंने कहा कि वह बड़ी टेढ़ी विद्या है, तेरे काम की नहीं पर वह दस दिन तक रोज उनके पास जाता रहा व इस विद्या को सिखाने की जिद करने लगा। इस पर बालक की जबरदस्त उत्कण्ठा देखकर उन्होंने उसे पावों के निशान पहचानने की कला सीखाने को हामी भर दी। पर शर्त रखी की कभी किसी गलत काम में इसका उपयोग मत करना व जरूरत पड़ने पर किसी की मदद के लिए आधी रात में भी तैयार रहना।
सीखने की बलवती इच्छा ने सब कुछ स्वीकार कर लिया।
धीरे-धीरे वह पांवों के निशान की पहचान करने लगा व थोड़े ही दिनों में इस कला में पारंगत हो गया।
अब सारंगी के पाँवों के निशान खोजने निकला, तब तक तो सारे निशान मिट चुके थे। पर उसके मन पर पड़े सारंगी के निशान हमेशा के लिए अमिट रह गये। गुरु को दिए वचन के अनुसार वह लोगों की मदद करने लगा। गांव में जब चोरी कोई पशुओं के इधर-उधर भटक जाने पर लोग उसे बुलाने लगे और वह पागीपना करता रहा। शायद इसी वहम में की एक दिन सारंगी को भी खोज लेगा जो अब तक नहीं मिली थी।
तन्दूरे की आवाज की तरफ उसके कदम अनायास बढ़ गये देखा कि एक महिला तन्दूरा बजा रही है और गा रही है उसकी आँखों में वही सारंगी सी चमक देखकर वह ठिठक गयाण्ण्ण्ण्
और पूछ बैठा -
भतुम सारंगी।्य
भहाँ, सारंगी हूंण्ण्ण्ण्। बाकी बातें बाद में करना बळद उस टेकरी के पीछे छप्पर में बाँध रखे हैं और उसे ढ़क रखा हैण्ण्ण्। मैं अभी जा रही हूँ बाद में मिलूँगी। नहीं तो सभी लोग इधर आते ही होंगे व हमें देख लेंगेण्ण्ण्। तुम अपना पागीपने का कमाल दिखा दो जाओ।्य
‘‘ठीक है, यह तो बताओ तुम यहाँ कैसे आई ? मेरे बाप ने मेरा ब्याह यहाँ कर दिया है इस कंजरों की बस्ती में......। पर तुमने मुझे पहचाना कैसे.....? मैं तुम्हारा ठिकाना तो जानती थी ण्ण्ण्ण्ण्ण्मेरा तो कोई ठिकाना था नहीं डेरा था। यहाँ से वहाँ चलता रहता था। फिर तुम्हारे गले में पड़ी यह चाँद लटकती गुंगियों की माला......। वे सब लोग आ रहे हैं, मैं अभी जा रही हूँ......।’’ इतना कह कर सारंगी वहाँ से चली गई पर बातों ही बातों में अपना तन्दूरा वहाँ भूल गई।
सभी वहाँ पहुँचे, तब तक पागी टेकरी की तरफ बढ़कर छप्पर में से बैलों को निकाल लाया। कंजरों को विश्वास ही नहीं था कि बैलों तक कोई पहुँच जायेगा।
कंजरों में खलबली मच गई आज किसी ने विश्वासघात किया है। तभी एक कंजर ने तन्दूरा देखकर कहा भयह तो सारंगी का है, जरूर उसी रांड ने बताया होगा।
कंजरों ने सारंगी को पकड़ लिया और उसकी छाती में कटार उतार दी।
पागी बैल लेकर आया और पता चला कि कंजरों ने अपनी ही लुगाई को मार दिया है.... उसने उनके साथ विश्वासघात किया था। सुनते ही पागी के होश उड़ गये, पाँवों के नीचे से धरती खिसक गई। आसमान का सारा बोझ उसके सिर पर आ गया। बैलों की पगहिया बिरदा के हाथ में देते हुए मन ही मन यह ठान बैठा कि आज के बाद पागीपना नहीं करेगा। जिसके लिए यह कला सीखी वही नहीं रही तो सारी कला ही किस काम की।

2 comments:

आर. अनुराधा said...

बहुत शानदार कहानी है। बिल्कुल,जैसे मन से लिखी हुई। राजस्थान के कंजरों,बंजारों का जीवन, पागियों की कला और बिशना का प्रेम। अद्भुत है। बहुतदिनों के बाद ऐसे निश्छल प्रेम की कहानी पढ़ी जिसमें शहराती शोर की मिलावट नहीं थी। वाह!

Dr Shakti Singh Shekhawat said...

Babur shandar