Tuesday 7 August, 2012

कथादेश में आई कहानी

पागी
- दिनेश चारण

चैत का महीना, पूनम की दूधिया रात रैनादे के साथ बिताकर मन्द-मन्द लाल-गुलाबी मुस्कान बिखेरता सूरज उग रहा था, काल को चलायमान रखने के लिए। सूरज की रोशनी के साथ पौ फटते ही गाँव में कोलाहल मच गया कि बिरदा के बैल रात में चोर खोल कर ले गए है।
चार दिन पहले ही तिलवाड़ा के मल्लीनाथ के मेले के अन्तिम दिन चैत सुदी ग्यारस को बिरदा अपनी पत्नी रुक्मा के माथे का बोर बेचकर बारह सौ सत्तर रुपये में नागौर के एक व्यापारी से बैलों की जोड़ी खरीद कर लाया था। बैल क्या थे.....। सींग न हो तो मालाणी घोड़े की जोड़ के थे। भरे-पूरे पुट्ठे, चारों पैरों की सधी चाल, पारख करो तो सभी सुलक्षण कोई कमी-बेसी नहीं।
बिरदा गया तो था मल्लीनाथ बाबा के दर्शन करने, पर बैलों को देखते ही उन पर उसका मन आ गया। बिरदा की बैलों की ओळखाण इतनी जबरदस्त थी कि उसने उनके जोड़ के बैल आज तक नहीं देखे थे। चार पहर में आठ बीघा जमीन तो जोत ही दे और चड़स पर ढ़ाई घड़ी पहले न रुके जैसे।
मेला तो मल्लीनाथ के दर्शनों को भरा था पर मेले में आने वाला हर व्यक्ति उन बैलों की चर्चा सुन उन्हें देखने आता। लोग आते, मोल-भाव करते और चलते बनते। कई लोगों ने खरीदने की कोशिश की पर बारह सौ सत्तर रुपये से व्यापारी एक भी नया पैसा कम लेने को तैयार नहीं और कहता - ‘‘बेटो से ज्यादा दूध-घी इन्हें खिलाया है, तीन घाणी तेल व मण खोपरों की कचर खिलाई है इन्हें, तभी तो देखो पुट्ठे पर मक्खी बैठे तो फिसल जाए।
बिरदा के मन में तो बैल ऐसे बैठे ही उधार लेकर भी व्यापारी के माँगें रुपये देने को वह तैयार हो गया। पास में तो खोटा टका भी था नहीं, पर उसके हौसले ने सौदा पक्का कर लिया और साँझ तक की मोहलत लेकर पैसे लेने घर चल दिया।
घर पहुँचते ही - ‘‘रुक्मा मेळा में बळद देख आयो हूँ, शिवजी रे नांदियाँ री जोड़ रा बळद है, डेढ़ भेंत री थुई और पूंछ देखो तो ठाकुरजी रे मिन्दर रा चँवर तांई सफेद है।ण्ण्ण् घर में कित्ता रुपिया है?’’
बक्से, डिब्बों आदि में देखकर रुक्मा ने कहा ‘सित्तर रुपिया है।’
जरूरत बारह सौ सत्तर की थी तो रुक्मा से कहा - ‘‘थारी रकमा दे दे तो आज कैई बरसां बाद मन में बळद मोलावण री आस पूरी वै (व्है) जावै।’’
रुक्मा ने माथे पर से सोने का बोर उतार कर दे दिया बाकी तो कान, नाक में सुहाग की प्रतीक चांदी की चीजें थीं।
गाँव के साहूकार को बारह सौ रुपये में बेचकर घर से सत्तर रुपये के साथ सहेजकर दिन ढ़लते-ढ़लते मेले में पहुँचकर कौल के मुताबिक व्यापारी को पूरी रकम देकर, दाहिने हाथ में बैलों की पगहिया थामे बिरदा गाँव आ गया।
रूक्मा पहले से ही बैलों को बधाने की तैयारी कर चुकी थी। आते ही कुमकुम का तिलक निकालकर गुड़ की डलियाँ बैलों के मुँह में देकर बधाकर घर में लिया। घर तो क्या था खींपड़े से छाया हुआ छप्पर था, छप्पर के आगे बैलों को बांध दिया।
आज बिरदा की बरसों की मुराद पूरी हुई और उत्साह इतना कि सीना सामान्य से पाँच इंच ज्यादा फूला हुआ। गाँव-गवाड़ी के लोग बैलों को देखने आते व कहते कि ‘‘बळद कांई बिरदौ तो हीरा टाल अर लायौ है।’’
बैलों की चर्चा सुन आस-पास के गाँव वाले भी बैलों को देखने आने लगे। बैलों को किसी की नजर न लग जाये इसलिए रूक्मा साँझ-सवेरे नौन-मिर्च करती और बैलों के काले रंग का टीका लगाती।
चार दिन तक गाँव में मेले सा माहौल रहा, पाँचवीं सुबह तो खूंटा खाली था। बैलों की चोरी की खबर फैलते ही गाँव के सभी लोग इकट्ठे हुए और गाँव के ठाकुर गंगासिंह भी वहाँ आ गये थे। तब तक कुछ लोगों ने खूंटे के आस-पास जो पैरों के निशान थे उन्हें तगारी से ढ़क दिया था और कहने लगे कि पागी को बुलाओ।
ठाकुर गंगासिंह ने बिशना पागी को बुलावा भिजवा दिया। आस-पास के इलाके में उसकी इस विद्या का कोई सानी नहीं था।
बिशना ने आते ही पांवों के निशान देखकर कह दिया कि ‘‘बळद तो कंजरगढ़ रा कंजर लैगा है थोड़ा दिना पै्यली राईका री ढ़ाणी में चोरी करण वाला ऐड़ा ही निसाण हा, और कंजर पकड़ में आया।’’ कंजर सदियों से घुमक्कड़ जाति रही है, अपने डेरों के साथ जीवन-यापन के लिए इधर-उधर भटकते रहते हैं छोटा-मोटा काम मिल गया तो कर लिया, नहीं तो माँग कर खा लेते हैं। पिछले कुछ समय से कुछ डेरे स्थायी रूप से बस गये हैं और कुछ आज भी अपने डेरों के साथ यायावरी करते हैं।
वीरमगढ़ से पन्द्रह कोस की दूरी पर है कंजरगढ़ - अरावली की गोद में बसा। कंजरों की बस्ती के कारण ही नाम पड़ा कंजरगढ़। गढ़ तो वहां कोई था नहीं थे तो बीस-पच्चीस डेरे कंजरों के और आतंक इतना की किसी की उस इलाके में पाँव रखने की हिम्मत नहीं। दिन में माउड़ी (हथकढ़ी शराब) पीना और रात में चोरी चकारी करना पेशा बना लिया था, इन लोगों ने। पर वीरमगढ़ में चोरी कम ही करते थे, क्योंकि वहाँ के ठिकानेदार का डर था उन्हें, कभी की भी तो छोटी-मोटी चोरी जिसकी किसी ने परवाह नहीं की। अबकी बार दुस्साहस कर ही दिखाया।
पांवों के निशान ढूँढ़ते-ढूँढ़ते बिशना पागी आगे-आगे व ठाकुर सहित गांव के मोजीज लोग पीछे-पीछे। पाँवों के निशान छुपाने के लिए कंजर आड़े-तिरछे चले थे पर पागी की पारखी नजरों से कहाँ बचते। चलते-चलते पांवों के निशान कागली नदी के अन्दर चले गये।
अरावली के पहाड़ों का पानी बैसाख के महीने में भी रिसते-रिसते आ रहा था, घुटनों तक पानी भरा था पर पानी में निशान कैसे खोजे जाए। पर पागी के पागीपने की पारख भी तो आज ही होनी थी। जमीन पर पड़े निशान तो कोई खोज ले, असली पागी तो वह है जो पानी में निशान खोजे। सभी के एक साथ पानी में उतरने से पानी गंदा हो जायेगा इसलिए सबको किनारे पर रोक कर बिशना पागी ने धीरे-धीरे अपनी कला का हुनर दिखाते हुए पांवों के निशान खोजते हुए नदी पार कर सभी को आने का संकेत कर दिया।
सभी प्रशंसा कर रहे थे कि पानी में भी निशान खोज लिए जोरदार पागी है।
अब तो समस्या और भी विकट थी पथरीली जमीन आ गई थी उस पर पाँव के निशान कैसे खोजे जाए, पर पागी की पारखी नजरें ढूँढ़ती जा रही थीं कि सामने से पत्थरों की बौछारें होने लगी। देखा तो पता चला कि कंजरों की औरतों ने उन्हें रोकने के लिए पत्थर बरसाने शुरू कर दिये थे।
कंजरों को पता लग गया था कि वीरमगढ़ ठिकाने के लोग बैलों को खोजते-खोजते आ गये हैं, तो अपनी औरतों को वे उन्हें रोके रखने को कहकर बैलों को और भी आगे ले गये और पहाड़ियों में छिपाकर आ गये तब तक औरतों ने एक भी व्यक्ति को आगे नहीं बढ़ने दिया।
तभी एक अधेड़ उम्र का कंजर आगे आया और ठाकुर की ओर हाथ जोड़कर बोला - ‘‘हुकम माई-बाप आप हो। औ तो ध्यान ई कोनी हो, लुगायां जाणियौ कोई हमलो करण नै आया है। हुकम करौ कैंया पधारणो व्हियो।’’
‘‘आवण री जरूरत तो कोनी ही, पर थे काम ई ऐड़ा इज करो के आवणौ पड़ै’’ गंगासिंह ने कहा कि ‘‘कालै रात रा बिरदा रा बळद लाया हो जका पाछा कर दौ।’’
‘‘टाबरां री सौगन्ध जै म्हां बळद लाया व्हा तो। आ पड़ी बस्ती आप खुद देख लो।’’
क्यूं बिशना..... कंजर कांई कैवे है......?
पावों के निशान तो इसी बस्ती में आये हुए हैं बिशना के कहने पर ठाकुर ने चार मौजीज आदमियों को बस्ती में देखने को कहा।
थोड़ी देर में वे लौट आये व कहा कि बैल यहां तो नहीं है। ऐसी स्थिति में पागी की इज्जत का सवाल खड़ा हो गया। बिशना भी सकते में आ गया और गले में पड़ी चाँद लटकते गुंगियों की माला को हाथ से घुमाने लगा और सोचने लगा कि बैल आखिर गये कहा हैं। इतनी ही देर में कंजरों की औरतें बस्ती में लौट गई थीं।
बिशना कुछ सोच रहा था कि तभी कुदरत की मेहर हुई और विधाता की लीला कि तन्दूरे की मधुर स्वर लहरियाँ उसके कानों में पड़ी -
 ‘‘एक बार मिलजा रै बैरी यूँ पाछौ मत जा........
  बालपणे री प्रीत नै यूँ मत ना बिसरा.......।’’
पागी का अन्तस हिलोरे लेने लगा, रोम-रोम में बिजलियां सी दौड़ गई - यह तो सारंगी की आवाज है...... पर सारंगी यहां कैसे ?
आज से कोई पन्द्रह बरस पहले ण्ण्ण् वीरमगढ़ में कंजरों के कुछ डेरे आये थे। नीमली नाड़ी के पास बंजर पड़ी जमीन पर अपने डेरे डाले थे इन्होंने। नीमली नाड़ी नाम तो इस कारण पड़ा था कि नाड़ी के किनारे पर कभी एक विशाल नीम का पेड़ था, नीम तो अब नहीं रहा पर लोग आज भी उसे नीमली नाड़ी के नाम से ही जानते हैं।
इन डेरों से कन्जरों की औरतें व बच्चे सुबह-सुबह ही हाथों में तन्दूरे बजाते हुए लोकगीत गाते हुए घर-घर रोटी की याचना करते और लोग इन्हें रात का ठण्डा-बासी खाना दे देते। रोज इसी प्रकार याचना और ऐसे ही पेट पालना इनके जीवन का एक हिस्सा हो गया था।
बिशना की उम्र उस समय पन्द्रह बरस की होगी। उसके घर पर भी यह लोग मांगने आते थे। इनमें एक दस-बारह साल की चंचल लड़की थी, आँखें हिरणी जैसी और पपीहे सा कण्ठ। वह जिस-जिस घर के आगे जाकर गाती बिशना उसके साथ-साथ उसे सुनता चलता।
न जाने कौनसा आकर्षण उसे खींचता था कि कई बार वह उसके पीछे-पीछे उसके डेरे तक चला जाता था। वह जब डेरे में चली जाती और झोली में लाई सामग्री को सभी के साथ बांटकर खाने लगती बिशना डेरे के आस-पास घूमता रहता इसलिए की शायद वह यहाँ भी तन्दूरा बजाती होगी।
एक दिन सुबह जब वह लड़की माँगने आयी तो अपने घर से फटाक दो रोटी लेकर पहले ही खड़े बिशना ने गाने के बाद उससे पूछ ही लिया - तेरा नाम क्या है ?
सारंगी.....। और तेरा..... ?
बिषना..... एक बात बता सारंगी तू दूसरों के घर मत गाया बजाया कर, मेरे घर के सामने ही गाया-बजाया कर। मैं बहुत सी रोटियाँ तुझे रोज दे दूँगा।’
‘यहाँ भी गाऊँगी-बजाऊँगी और सभी जगह गाऊँगी-बजाऊँगी। तुम सुन लिया करो।’ खिल्लड़ सी हँसी हँसते हुए सारंगी आगे बढ़ गई, तन्दूरे पर गाती हुई -
भतालरिया-मगरिया रे......।’
रोज सुबह सारंगी आती उससे पहले रोटियाँ लेकर पागी तैयार, सुबह उठकर कुल्ला करे न करे सारंगी की रोटियाँ लेकर दरवाजे पर पहले ही बैठ जाता था। सारंगी की मछलियों की तरह उछलती, चमकती आँखों में पता नहीं क्या ढूँढ़ता रहता। धीरे-धीरे सारंगी भी उसके प्रति आकर्षित होने लगी। तो वह पागी से रुककर बातें भी करने लगी व उसकी फरमाइश पर चिरमी, कांगसियो, बिछूडो, सुवटियो जैसे लोकगीत भी गाने लगी।
बिशना रोटियों के साथ-साथ घर में बनी हुई चीजें भी चोरी-छिपे घर वालों से बचकर देने लगा। एक बार सारंगी ने अपने हाथों से गूँथी गुंगियों की माला बिशना को दी थी, जिसे फटाक से बिशना ने गले में डाल दिया और कमीज के नीचे छिपा लिया ताकि उसे देखकर कोई यह न पूछे कि कहाँ से लाया यह माला। यह सारा प्रेम सारंगी के प्रति था या उसके गीतों के प्रति यह न तो सारंगी जानती थी न बिशना। खैर प्रीत को तो कोई जान ही नहीं सकता कि देह से होती है या मन से और जब जान जाते हैं तो प्रीत-प्रीत न होकर छलावा हो जाती है।
जब कंजरों को डेरे जमाये कई दिन हो गये तो गाँव वालों को लगा कि कहीं ये लोग यहीं न बस जायें। इसलिए गाँव के कुछ प्रमुख लोगों ने जाकर कह दिया कि अब कई दिन हो गये हैं डेरे कहीं और ले जाओ। दो-चार दिन बाद ही कंजरों ने डेरे वहाँ से उठा लिए और कहीं और कूच कर गये। आकाश की छत के नीचे पलते इन बेघर लोगों का कोई ठिकाना तो था नहीं कि वहाँ जाते जिस ओर रास्ता ले जाये चले जाते और उस जमीन पर डेरे डाल देते जो बंजर हो, गांव से दूर हो या जहाँ पर रहने से किसी को परेशानी न हो।
सुबह से रोटियाँ लिए बैठा बिषना सारंगी की बाट जोह रहा था, सूरज सिर पर चढ़ आया है सारंगी आज आयी नहीं, कंजरों के डेरों से कोई आया भी नहीं। बिषना रोटियाँ कमीज के अन्दर छिपाकर चुप-चाप डेरों की ओर चल दिया। देखता है कि वहाँ कोई नहीं है।
आसपास लोगों से पूछता है तो पता चलता है कि कंजर डेरे लेकर कहीं और चले गये हैं। पूछा कहां गये हैं तो हँसते हुए एक व्यक्ति ने कहा उनका कोई ठिकाना तो है नहीं जिधर मुँह उठाया चल दिए। बिषना को सुनते ही लगा कि उसके कलेजे में किसी ने कटार घोंप दी हो। सारी शक्ति शून्य हो गई।
धीरे-धीरे डेरों के पास जाकर उसने वहाँ उनके जानवरों व आदमियों के पैरों के निशान देखे व उन निशानों के पीछे-पीछे चलने लगा। कई निशानों को उसने अपनी आँखों में उतार लिया और उनमें सारंगी के पांवों के निशान खोजने लगा। पर पहले से सारंगी के पाँवों के निशान पता हो तो पहचाने। पैरों के निशानों के पीछे चलते-चलते शाम ढल आई थी, सूर्यदेव विश्राम को जाने को उत्सुक थे और उनके चेहरे पर प्रसन्नता की लालिमा थी कि सारे दिन भर उजाला करके मनुष्यों को व जगत को भूत के साथ छोड़कर नये भविष्य को लेकर कल फिर आऊँगा। पर.... मनुष्य का न तो भूत पीछा छोड़ता है और न भविष्य उसे चाहने के अनुसार मिल पाता है।
इधर बिशना के घर वाले चिंतित की छोरे ने सुबह से कुछ खाया-पीया नहीं और कहाँ चला गया। इधर-उधर ढूँढ़ते रहे। किसी ने कहाँ कि आज कंजर गाँव छोड़ के गये है क्योंकि उन्हें निकलने को कह दिया था इसलिए नाराज होकर शायद वे उसे पकड़ कर अपने साथ ले गये हैं। घर वालों की हालत खराब हो रही थी कि कंजर बदमाश जात कहीं मार-मूर दे और पता ही नहीं चले।
पूरे गाँव में यह बात फैल गई की बिशना को कंजर उठा ले गये हैं। कंजर किधर गये किसी को पता नहीं। इधर रात हो गयी और इन सभी बातों से बेखबर बिषना दिन भर भटकता रहा और उसे भूख लग आई। कमीज में छिपाई रोटियाँ निकालकर खाने लगा कि याद आई ये तो सारंगी के लिए लाया था और उसने उन्हें वापस रख दिया।
रात गहराने लगी। इधर घर वालों ने पागी रतन जी का पता करवाया ण्ण्ण्ण् रतनजी गाँव में पागी थे जो पाँवों के निशान पहचानते थे। वे पाँवों के निशान पहचानते-पहचानते कंजरों के डेरों की तरफ चल दिये। तभी बिशना रास्ते में मिल गया। लोगों ने पूछा कि कौन लाया तुझे तो उसने बता दिया कि मैं तो कंजरांे के डेरे खोजते-खोजते भटक गया था।
घर आते ही उसे पूरी बात का पता चला कि रतनजी पाँवों के निशान खोजते-खोजते उस तक पहुँचे थे।
दूसरे दिन वह रतनजी के पास गया व उनसे पाँवों के निशान खोजने की विद्या सिखाने को कहा। उन्होंने कहा कि वह बड़ी टेढ़ी विद्या है, तेरे काम की नहीं पर वह दस दिन तक रोज उनके पास जाता रहा व इस विद्या को सिखाने की जिद करने लगा। इस पर बालक की जबरदस्त उत्कण्ठा देखकर उन्होंने उसे पावों के निशान पहचानने की कला सीखाने को हामी भर दी। पर शर्त रखी की कभी किसी गलत काम में इसका उपयोग मत करना व जरूरत पड़ने पर किसी की मदद के लिए आधी रात में भी तैयार रहना।
सीखने की बलवती इच्छा ने सब कुछ स्वीकार कर लिया।
धीरे-धीरे वह पांवों के निशान की पहचान करने लगा व थोड़े ही दिनों में इस कला में पारंगत हो गया।
अब सारंगी के पाँवों के निशान खोजने निकला, तब तक तो सारे निशान मिट चुके थे। पर उसके मन पर पड़े सारंगी के निशान हमेशा के लिए अमिट रह गये। गुरु को दिए वचन के अनुसार वह लोगों की मदद करने लगा। गांव में जब चोरी कोई पशुओं के इधर-उधर भटक जाने पर लोग उसे बुलाने लगे और वह पागीपना करता रहा। शायद इसी वहम में की एक दिन सारंगी को भी खोज लेगा जो अब तक नहीं मिली थी।
तन्दूरे की आवाज की तरफ उसके कदम अनायास बढ़ गये देखा कि एक महिला तन्दूरा बजा रही है और गा रही है उसकी आँखों में वही सारंगी सी चमक देखकर वह ठिठक गयाण्ण्ण्ण्
और पूछ बैठा -
भतुम सारंगी।्य
भहाँ, सारंगी हूंण्ण्ण्ण्। बाकी बातें बाद में करना बळद उस टेकरी के पीछे छप्पर में बाँध रखे हैं और उसे ढ़क रखा हैण्ण्ण्। मैं अभी जा रही हूँ बाद में मिलूँगी। नहीं तो सभी लोग इधर आते ही होंगे व हमें देख लेंगेण्ण्ण्। तुम अपना पागीपने का कमाल दिखा दो जाओ।्य
‘‘ठीक है, यह तो बताओ तुम यहाँ कैसे आई ? मेरे बाप ने मेरा ब्याह यहाँ कर दिया है इस कंजरों की बस्ती में......। पर तुमने मुझे पहचाना कैसे.....? मैं तुम्हारा ठिकाना तो जानती थी ण्ण्ण्ण्ण्ण्मेरा तो कोई ठिकाना था नहीं डेरा था। यहाँ से वहाँ चलता रहता था। फिर तुम्हारे गले में पड़ी यह चाँद लटकती गुंगियों की माला......। वे सब लोग आ रहे हैं, मैं अभी जा रही हूँ......।’’ इतना कह कर सारंगी वहाँ से चली गई पर बातों ही बातों में अपना तन्दूरा वहाँ भूल गई।
सभी वहाँ पहुँचे, तब तक पागी टेकरी की तरफ बढ़कर छप्पर में से बैलों को निकाल लाया। कंजरों को विश्वास ही नहीं था कि बैलों तक कोई पहुँच जायेगा।
कंजरों में खलबली मच गई आज किसी ने विश्वासघात किया है। तभी एक कंजर ने तन्दूरा देखकर कहा भयह तो सारंगी का है, जरूर उसी रांड ने बताया होगा।
कंजरों ने सारंगी को पकड़ लिया और उसकी छाती में कटार उतार दी।
पागी बैल लेकर आया और पता चला कि कंजरों ने अपनी ही लुगाई को मार दिया है.... उसने उनके साथ विश्वासघात किया था। सुनते ही पागी के होश उड़ गये, पाँवों के नीचे से धरती खिसक गई। आसमान का सारा बोझ उसके सिर पर आ गया। बैलों की पगहिया बिरदा के हाथ में देते हुए मन ही मन यह ठान बैठा कि आज के बाद पागीपना नहीं करेगा। जिसके लिए यह कला सीखी वही नहीं रही तो सारी कला ही किस काम की।

Wednesday 2 December, 2009

प्रो. कल्याणमल लोढ़ा - अंतिम शिष्य की स्मृतियों से

अपने जीवन के अंतिम काल में लगभग पांच साल प्रो. कल्याणमल लोढ़ा जयपुर रहे थे और मुझे यह सौभाग्य मिला कि यहां मैं लगभग शुरू से ही उनके सान्निध्य में रहा। वे मुझे अक्सर कहा करते थे कि अब तू मेरा शिष्य है, मेरा अंतिम शिष्य, मेरा मानस पुत्र है.. अपने जीवन सूत्र को मुझसे उन्होंने यूं बांटा था- धर्म न अर्थ न काम रूचि, गति न चहौं निरवाण, जनम जनम गति वाक में ,यह वरदान न आन।


उनके जाने का समाचार अप्रत्याशित नहीं था पर दुखद तो था ही। जिन्होंने अपने नवें दशक की जिंदगी जीते हुए छायावाद से लेकर आज तक हिन्दी साहित्य को जिया था। और अपने युग के शीर्ष जनों यथा- बच्चन, पंत, निराला, महोदेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा और धीरेंद्र वर्मा आदि के साथ वे करीबी रहे। इसीलिए उन्हें छू के मुझे हिंदी साहित्य की युगानुभूति अगर हुई कि जिस हाथ का सहारा देकर उन्हें खड़ा किया कि इस हाथ को उनके समकालीन हिंदी के कालजयी लेखकों छुआ है तो मैं मिथ्या अभिमानी तो नहीं कहलाउंगा ना? अपने जीवन के अंतिम काल में लगभग पांच साल प्रो. कल्याणमल लोढ़ा जयपुर रहे थे और मुझे यह सौभाग्य मिला कि यहां मैं लगभग शुरू से ही उनके सान्निध्य में रहा। एक मित्र के माध्यम से परिचय हुआ था, फिर उस मित्र से अधिक निकटता मेरी उनसे हो गई। बढ़ती उम्र के साथ-साथ बिमारी से उनका शरीर उनका साथ नहीं दे रहा था और वे पूर्ण रूप से एक कमरे में सिमट कर रह गये थे। उनकी दुनिया वही तक सीमित हो गई थी, एक नौकर के भरोसे जो बदलते रहते थे। एकांत में अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी जब तक उनकी मस्तिष्क की चेतना साथ देती रही, वे पढ़ते रहे, लिखते रहे, अवस्थ्यता के कारण उनके हाथों की उंगलियां काम नहीं करती थी तो लिखने में उन्होंने मुझे अपना सहायक बना लिया। वे बोलते रहते और मैं कागज पर उनकी साहित्यधर्मिता को मूर्त रूप देता रहता था। अपने निजी मित्रों को पत्र लिखवाना, पुराने नोट्स जो उन्होंने कभी पहले अपने हाथों से लिख रखे थे उनके आधार पर पाण्डुलिपियां तैयार करवाना आदि। वृद्धावस्था के कारण उनको सुनाई कम देता था परन्तु आंखें और याददाश्त उनका साथ दे रही थी। उन्हें यहां तक याद रहता था कि कौनसी किताब के किस पेज नम्बर पर क्या लिखा है। लेकिन शरीर बेजान हो गया था। पुराने दिनों को याद करते हुए कहते थे कि मेरी असली पूंजी तो वह है जो मैंने लिखा है। सारे रिश्ते-नाते, धन-सम्पदा बेमानी है जो एक दिन यहीं रह जायेंगे। वे अक्सर गुनगुनाते हुए कहते थे कि ''सब ठाठ पड़ा रह जायेगा, जब लाद चलेगा बंजाराÓÓ

पत्नी की मृत्यु के बाद वे टूट गये अक्सर यह बात बातों ही बातों में कहते थे कि उसके जाने के बाद अकेला हो गया हंू। ऊ ंचा सुनने के कारण उनके कई परिचित व मित्र जिनके नाम बहुत बड़े हैं मैं लेना नहीं चाहंूगा, उनके फोन काट दिया करते थे या रिसीव ही नहीं करते थे। इस पर वे उदास हो जाते व कहते कि अब मैं इन लोगों के काम का नहीं रहा हंू। क्योंकि अब मैं किसी कमेटी में नहीं हंू, कोई सत्ता मेरे पास नहीं है ये क्यों बात करेंगे मुझसे। अपने जीवन सूत्र को मुझसे उन्होंने यूं बांटा था- धर्म न अर्थ न काम रूचि, गति न चहौं निरवाण, जनम जनम गति वाक में ,यह वरदान न आन।जयशंकर प्रसाद और सूरदास उनके प्रिय कवि थे, इनके ऊपर उन्होंने भरपूर लिखा भी। कामायनी पर उनके अद्भुत व्याख्यान के चर्चे तो मैंने कई लोगों के मुंह से सुने हैं। साथ ही आध्यात्म उनका प्रिय विषय था, स्वामी प्रत्ज्ञात्मनांनद सरस्वती जी से गुरूमंत्र लेने के बाद वाक श्रृंखला लिखी- वाक तत्व ,वाग्विभव, वागदोह, वागद्वार वागमिता, वाकपथ, वाकसिद्ध आदि। उनक ी अंतिम पुस्तक दिव्य प्रतीक पिछले वर्ष ही प्रकाशित हुई जिसकी पाण्डुलिपि तैयार करने का मौका मुझे प्राप्त हुआ था। वे मुझे अक्सर कहा करते थे कि अब तू मेरा शिष्य है, मेरा अंतिम शिष्य, मेरा मानस पुत्र है, आज मेरे शिष्य मुझसे बात भी नहीं करते हैं। उनके पास आए कई सिफारिशी पत्र मैंने उन्हें पढक़र सुनाए थे, विशेषकर पुरस्कारों को दिलवाने के लिए कि आप मेरी सिफारिश करें, तब वे दु:खी होकर कहते थे कि क्या भूख जग पड़ी है लोगों में कि पुरस्कार लेने के लिए भी सिफारिश की बात करते हैं। अपने जीवन के कई ऐसे प्रसंग हुए कहते थे कि ये सिर्फ मैं तुझे बता रहा हंंू, पता नहीं तुझसे मेरा पिछले जन्म का कोई रिश्ता रहा होगा। उन्होंने कहा था कि दिनेश, पहली बार तुम्हें बता रहा हूं, मंचों और व्याख्यानों में गुरू और सरस्वती को याद करके ही बोला करता था। उनका मुझ पर स्नेह और मेरा स्नेहाधिकार ही कहूंगा कि उनके सेवक कु छ मनवाने के लिए मुझसे आग्रह करते थे, मेरी स्मृति में उन्होंने मेरा आग्रह टाला भी नहीं। हिन्दी साहित्य का यह पुरोधा अपने -आप में एक जीता-जागता साहित्यिक कोष था। उनके सान्निध्य में अहसास हुआ कि उन्हें बंगाल में हिंदी का भागीरथ व्यर्थ ही नहीं कहा गया। उनके प्रिय रचनाकारों की रचनाएं तो उन्हें मुख जबानी याद थी। जब बोलते थे तो मुझे अपने जीवन में पहली बार किसी व्यक्ति के लिए ऐसा लगा कि साक्षात सरस्वती कण्ठों पर विराजने का मुहावरा इनके लिए ही बना है। पर अफसोस उनकी एक हसरत बाकी रह गई, वे चाह रहे थे कि एक पुस्तक उनकी और मेरी साथ में छपे परन्तु यह हो नहीं सका, उनकी चाहत अधूरी रही और मेरा दुर्भाज्य, इसका मुझे दु:ख है। पर उनका इतना सुखकर एवं गौरवपूर्ण सान्निध्य ही मेरे लिए जीवनपर्यंत अक्षय निधि नहीं है क्या?

Saturday 22 November, 2008

मेरी कहानी


मेरी ये कहानी डेढ़ साल पहले राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित हुई,अक्टूबर 2007 में कहानी स्नेह से दुर्गाप्रसाद जी ने वेब पत्रिका इन्द्रधनुष इंडिया पर प्रकाशित कर दी थी.. आज कहूँ कि पहली कहानी पर इतनी सुखद और प्रिय प्रतिक्रियाएं मिलीं कि अभिभूत हुआ..मित्रों के लाख कहने पर उसके बाद से लिख नहीं पाया ..मित्रों ने उलाहने दिए हैं कि माननीय चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की तरह से एक कहानी से महान होना चाहता हूँ..शायद ये उलाहने और..ताने कुछ और बेहतर लिखवादे तब तक..एक बार फ़िर वही कहानी आपके सम्मुख प्रस्तुत है ..

कामायचा

शायद रत्नाकर के गर्भ से एक नयी सभ्यता का उदय हो रहा था, या मानव सभ्यता की सृष्टि-आज फिर कोई वराह पृथ्वी को उबार रहा हैं। मनु की तरह निर्जन में बैठा सुगना अपने झौपड़े की फुनगी की टोह ले रहा था, कि कब पानी उतरें और सिर ढ़कने का आसरा मिले। चिन्तामग्न सुगना की स्थिति जल प्लावन के बाद हिमालय पर बैठे शोक संतप्त मनु जैसी थी। फर्क था तो बस इतना कि मनु हिमालय पर्वत पर थे और सुगना रेत के टीबे पर। यह फर्क तो होना ही था, क्योंकि एक सृष्टि का नियन्ता था और दूसरा नियति।आठ दिन पहले पानी को तरसने वाले इस रेत के सागर पर काली घटाएं छायी थी। जेठ की गर्मी से झुलसी घरती को राहत मिली, सूखते पेड़ों में एक नयी चाहत जगी, मानवीय जिजीविषा हरहराने लगी। सुगना का आठ साल का पोता करमा दौड़ा-दौड़ा आया और कहने लगा - 'बाबा बादली आयी है, मेह आवैला।' साठ साल के सुगना ने अपने जीवन में ऐसी अनगिनत बदलियों को देखा था जो तृप्त न कर तृषित करती हुई चली गई। कई बार कामायचा लेकर मल्हार गाया पर बदलीर हर बार रूठ कर चली ही गई। पानी को तरसने वाले इन लोगों की नियति में यही बदा थी। बदली को आते देख बाछें खिल उठती थी और बिजलियों की चमक ऑंखों में चमक उठती थी, लेकिन बिना बरसे ही अपने साथ लाये पानी को वापस ले जाते देख बची रह जाती थी इनकी ऑंखों में निरीहता, निराशा । क़रमा झोंपड़े में से कामायचा ले आया ओर तारों को झंकृत कर गाने लगा - 'रिमझिम बरसों बादली इण धोरां वाले देश ।' संध्या आज दो घड़ी पहले ही आ गई है, बादलों के कारण । क़रमा कि उंगलियों को कामायचे पर साधते हुए, बजाने के गुर समझाते हुए सुगना अपने पुरखों से प्राप्त थाती अपने पोते के सुपुर्द कर रहा है। परम्परा का निर्वहन करते हुए, पूर्वजों के ऋण से उऋण हो रहा हैं । सुगना की कई पीढ़िया कामायचा बजाकर गीत गाकर अपना पेट पालती आई है। इस परिवार के लिए भी कामायचा कमाई की कामधेनु है। बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की कौंध के साथ बारिश की बूंदें गिरने लगी। सुगना का मन हरसाने लगा, अबकी बार कई वर्षो से नही निपजी धरती पर बाजरी और मोठ के अंकुर सुगना के हृदय में फूटने लगे। इस आशंका के साथ कि अगली बारिश कैसी होगी ? तभी रमली गरमागरम गुलगुले (गुड़ के पकोड़े ) ले आयी, करमा हाथ से ही झपटकर खाने लगा। रमली आकर पास में बैठ गई और सुगना से बतियाने लगी - 'अबकी रामजी किरपा करैला।' आज रमली की ऑंखों में चमक थी, चेहरा खिल गया, उस दिन की तरह जिस दिन सुगना से ब्याही थी।
क्योंकि इन लोगों के लिए बारिश उपहार से कम जो नहीं है। बारिश होते दो घड़ी हो गई है, आज कई बरसों बाद बरसा है इतना पानी और बरस रहा है, इतना बरसा कि सुगना ने अपने जीवन में आज तक नहीं देखा।
''दिन उगै कोठा में पड़ी बाज़री निकाल ने देख लीजे कठै जीव तो नीं पडग्या है'' कुदाली और कवाड़ी (कुल्हाड़ी) निकाल देने की बात कहकर अमृत बूंदों का स्पर्श पाता सुगना पास के झोंपड़े में सोने चला गया। फूस से छाया, गारे से बना झोंपड़ा बरसात के पानी को अन्दर आने से रोकने में सक्षम है । क़ितनी जबरदस्त तकनीक है उन पूर्वजों की जिन्होंने झोंपड़े बनाने की कला का इजाद किया था। फूस की छावन को ढ़ाल उतारकर इस तरह व्यवस्थित कर रखा कि बारिश का सारा पानी ढ़लकर नीचे आ जाता है।
शुक्ल पक्ष की चौदस (चतुर्दशी) की रात भी आज अमावस (अमावस्या) सी लग रही थी क्योंकि चांद को तो अपने ऑचल की ओट में रखा था बादलों ने। आधी रात ढ़लने पर रमली नवोढ़ा की तरह सुगना के पास आयी और कहने लगी 'आज इन्दर राजा रूठगों है, बरसात रूकण रो नाम नी लेवे बरसती जावै है।' 'बावली इन्दर रूठियों कोनी राजी व्हेगो है, अबकी खेतां में चोखों धान निपजैला।' पास ही बाड़े में बंधी गायों और बकरियों की रंभाने की आवाज आ रही थी जो बारिश से भीगकर ठिठुर रही थी। आस-पास से कुत्तों और सियारों की क्रन्दन भरी भयानक आवाजे आ रही है, शायद इन मूक पशुओं की वह अदृश्य इन्द्रि जाग गयी हैजो इन्हें प्राकृतिक आपदा से पहले आभास करवा देती है। 'कुत्ता स्यालियाँ कुरलावै हैं कोई न कोई विपद आवेला' कहते हुए रमली सुगना की बाहों में सिमट गई। दिन निकला बारिश रूकी नहीं एक दिन दो दिन पूरे तीन दिन बारिश होती रही, कभी झिरमिर-झिरमिर तो कभी तेज बौछारों के साथ ग़ाँव में पानी इकट्ठा होता दिखाई देने लगा। जो रेत बरसों से प्यासी थी इतनी तृप्त हो गई लगता है उसमें से ही पानी का स्त्रोत फूट पड़ा हो।
अचानक रात मे अरे सुगना दौड़ बाढ़ आयगी हैं धरमा, ईसरा,गणेशा, दौड़ों रे दौड़ों । अपने-अपने घरों से बच्चों -बूढ़ों के साथ लोग सामान लेकर रेत की टीबों पर भागने लगे है, बाढ़ का पानी गाँव में आ गया है। इस काली रात में कई लोग टीबों पर पहुंच गये और बाकी बाढ़ में घिर गये बह गये, बिछुड़ गये शायद हमेशा की लिए। लोगों की जाग होती तब तक तो बाढ़ ने गॉव को घेर लिया था। सुगना सामान लेकर टीबे की ओर दौड़ा जैसे ओलम्पिक का धावक दौड़ रहा हो रमली, बेटे-बहुओं को जल्दी सामान लेकर आने का कहते हुए। मौत के डर ने साठें सुगना में भी स्फूर्ति ला दी थी। मनुष्य डरता केवल मौत से ही है अगर मौत का डर न हो तो प्रकृति का यह निष्ठुर जीव
प्रकृति की सत्ता को ही ठुकरा दे भगवान को ही न माने उसे भी चुनौती दे डाले, पशुओं से भी ज्यादा हिंसक व क्रूर हो जाये। सुगना टीबे तक पहुॅचा तब तक तो बाढ़ विकराल रूप से आ गई थी। सुगना रमली को आवादेता हुआ, झौंपड़े की ओर भागा पर पानी के वेग ने आगे नहीं बढ़ने दिया। सुगना चिल्लता रहा पर पानी के कोलाहल में सुगना की आवाज दब गई। प्रकृति की आवाज में मानव की आवाज कहा तक जा पाती ? दिन उगने वाला था सूरज की प्रतीक्षा से ज्यादा आज सुगना को रमली और बच्चों की प्रतीक्षा थी, परन्तु यह प्रतीक्षा चिर प्रतीक्षा में तब्दील हो गई सारा गॉव काल कवलित हो गया था क़ुछेक लोग टीबों पर पहुंच गये थे। रेत का दरिया आज पानी के दरिया में तब्दील था।
जहां कभी पीने के पानी को लोग तरसते थे, वहां आज पानी का अथाह सागर दिख रहा है। टीबें पर बैठे सुगना की स्मृतियां ताजा हो रही है छ: कोस दूर से ऊटों पर लादकर पानी लाता था। रास्ते में कोई हरियल वृक्ष नहीं जिसकी छाया का आसरा तपती धूप में ले सके, थे तो कुछ खेजड़ी के वृक्ष जो वैशाख - जेठ में ठूंठ हो जाते हैं। ऊंट को रमली के हाथों से गुंथे रंग-बिरंगे धागों से बने गोरबन्द का सिंगार कराके पौ फटने से पहले सुगना पानी लाने निकल पड़ता था। दो छांगल ऊंट की पीठ पर टांग हाथ में पुरखों की निशानी कामायचा लेकर । समुद्र में दिखने वाली पानी की लहरों के समान ही इन रेत के टीबों पर हवा के वेग से लहरें बनी हुई थी, उनको पार करते हुए पानी लाने जाता था। आते वक्त पानी से भरी छांगले ऊंट की पीठ पर होती थी और सुगना ऊंट की मोरी गले में डाले आगे-आगे चलता कामायचा के तारों को छेड़ रास्ते को छोटा करता रहता था। जिस जगह पानी की जबरदस्त कमी थी, गर्मियों के दिनों में सूरज की किरणों से मृगमरीचिका में पानी का आभास करने वाले लोगों के सामने आज रेत से बनी लहरे नहीं पानी की लहरें हिलौंरें मार रही थी। वह पानी जो बादलों से बरस कर भी खारा हो गया था। खारा तो इस कारण कि सुगना जैसे अनेक लोगों की आंखों से बहा करूणा का पानी इसमें मिल जो गया था। वर्षो से अकाल की मार झेल रहे, पानी को तरस रहे, जिजीविषा से जूझ रहे इन लोगों ने सोचा भी नहीं होगा की सुकाल पड़ेगा और इतना भयंकर की अकाल की मार को भी दबा देगा। इस सुकाल से तो अकाल ही भला था इन जलतृषित लोगों के लिए। इनके जीवन में पानी में कभी डुबकी नहीं लगाई उन्हें डूबो ही दिया। जिन्दगी का सारा स्नान अन्तिम स्नान के रूप में कुदरत ने ही करवा दिया। शायद उन्हें अब पानी देने की भी जरूरत नहीं क्योंकि पानी देने वाला बचा ही तो नहीं।
किसी के बचने की तो गुंजाइश ही नहीं थी। सारा गाँव डूब गया, झोंपड़ों के ऊ पानी फिर गया था, गॉव का नामों-निशान नहीं दिख रहा था। सुबह खेजड़ी के पेड़ के नीचे गीले कपड़ों में सुगना अचेत पड़ा है बारिश की बूंदा-बादी भी उसे सचेत नहीं कर पा रही है। बाढ़ के पानी को देखकर लग रहा है कि सारी पृथ्वी जल प्लावित हो गई है। खेजड़ी पर बैठी ठिठुरी टिट्हरी की टी-टी से सुगना की मूर्छा टूटी तो आंखों के सामने अथह समुद्र देखकर आंखे जमी सी रही गई, दिल दहल गया चारों और नजर फेरी तो पानी ही पानी आदमी जात की चीज तक नहीं दिखी, जानवर तो दूर की बात है। दिन निकल आया था सुगना जान गया कि सब कुछ चला गया है, कुछ भी नहीं बचा है। रमली की बातें याद आने लगी की इन्दर राजा रूठगो है। शायद रमली को पहले ही पता चल गया था।
खाली पेट पथरायी आंखों के साथ दो दिन हो गये है सुगना खेंजड़ी के पेड़ के नीचे बैठा है अतीत की यादों को लिये। घर से जो सामान बचा लाया था उसमें पुरखों की थाती कामायचा भी था। अकेलेपन में यह कामायचा ही उसका साथी है। पानी की थाह कितनी है सुगना को पता नहीं। तीसरे दिन बचाव दल का हैलीकाप्टर वहां से गुजरा तो सुगना पर उनकी नजर पड़ी। खाने के पैकेट गिराकर हैलीकाप्टर चला गया। चार दिन बीत गये पानी उतरा नहीं। रेत के नीचे जिप्सम की परत थी जो पानी को नीचे जाने से रोके हुए थी। बचाव दलों के सारे कयास धरे रह गये कि रेत पानी सोंख लेगी व पानी जमीन में उतर जायेगा। छठे दिन कुछ पानी उतरा और आदमी जात का नामों निशान सुगना को नजर आने लगा। बचाव दल के लोग उसके पास आये व रोते सुगना को ढांढ़स बंधाने लगे कि लोगों को बचाया है उनमें शायद तुम्हारे परिवार के लोग भी हों। वे पानी उतरने की बात आपस में कर रहे थे कि सुगना बीच में बोल पड़ा 'नीचे खड्डी है पाणी कोनी छुवै'। तब इन आधुनिक भूगोलवेताओं को समझ आया कि नीचे जिप्सम की परत है, उसे छेदे बिना पानी नहीं निकलेगा।
धीरे -धीरे पानी कम होने लगा, सुगना टीबे पर बैठा अपने झोंपड़े की टोह ले रहा था कि शायद उसमें रमली और बच्चे किसी तरह से बचे हों पर यह भ्रम था सुगना का, उस व्यक्ति का जो घोर निराशा से घिरने के बाद भी आशा की किरण का इंतजार करता है। बेसहारा आदमी कहीं न कहीं तो सहारा तलाशता है। सुगना को सहारा मिला कामायचे से। आज कई दिनों के बाद सुगना ने कामायचा बजाया है। पानी से भीगने के बाद कामायचे के ऊपर मंढ़ी खाल फूल गई थी, फिर भी कामायचे के पारखी सुगना ने तारों को कसकर झकृत कर दिया। सुगना गाने लगा, 'कुरजां ऐ म्हारौं भंवर मिलाय द्यों नी । सुगना के कण्ठ से दर्द फूट पड़ा, अंतस में हिलोरे लेता दु:ख का समुद्र गाने के साथ बाहर निकल रहा है। गाते-गाते सुगना की आंखों में अतीत दौड़ पड़ा। इसी कामायचे के साथ उसने जब रंगायन के मुक्ताकाश में गाना शुरू किया तो खचाखच भरें रंगायन में लोग थिरकने लगे थे, हर एक मुग्ध होकर सुगना को निहारते हुए सुन रहा था, विदेशियों ने दाद देते हुए नोटों की बरसात कर दी थी और आज का दिन जब उसका दर्द जाग पड़ा और सुगना गा रहा है मन से पर सूनने वाला कोई नहीं है। पर है उसका साथी कामायचा, क्योंकि जीवन में उसके सिवा उसका कुछ बचा ही नहीं था।

Monday 3 November, 2008

अनिल कुम्बले को अलविदा


भारत के महान क्रिकेटर अनिल कुम्बले आखिरकार भारतीय क्रिकेट को अलविदा कह गए।
उनके खेल को सलाम..

Friday 24 October, 2008

क्षमा करें



जैसे धोरों में ग्लोबल दुनिया से कट कर एक अलग संसार में रमा हुआ हूँ..ऐसे जैसे वहाँ हूँ जहाँ से मुझे भी मेरी ख़बर नहीं आती... आप सब मित्रों से माफी चाहता हूँ लिख पाने के लिए..