Wednesday, 2 December 2009

प्रो. कल्याणमल लोढ़ा - अंतिम शिष्य की स्मृतियों से

अपने जीवन के अंतिम काल में लगभग पांच साल प्रो. कल्याणमल लोढ़ा जयपुर रहे थे और मुझे यह सौभाग्य मिला कि यहां मैं लगभग शुरू से ही उनके सान्निध्य में रहा। वे मुझे अक्सर कहा करते थे कि अब तू मेरा शिष्य है, मेरा अंतिम शिष्य, मेरा मानस पुत्र है.. अपने जीवन सूत्र को मुझसे उन्होंने यूं बांटा था- धर्म न अर्थ न काम रूचि, गति न चहौं निरवाण, जनम जनम गति वाक में ,यह वरदान न आन।


उनके जाने का समाचार अप्रत्याशित नहीं था पर दुखद तो था ही। जिन्होंने अपने नवें दशक की जिंदगी जीते हुए छायावाद से लेकर आज तक हिन्दी साहित्य को जिया था। और अपने युग के शीर्ष जनों यथा- बच्चन, पंत, निराला, महोदेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा और धीरेंद्र वर्मा आदि के साथ वे करीबी रहे। इसीलिए उन्हें छू के मुझे हिंदी साहित्य की युगानुभूति अगर हुई कि जिस हाथ का सहारा देकर उन्हें खड़ा किया कि इस हाथ को उनके समकालीन हिंदी के कालजयी लेखकों छुआ है तो मैं मिथ्या अभिमानी तो नहीं कहलाउंगा ना? अपने जीवन के अंतिम काल में लगभग पांच साल प्रो. कल्याणमल लोढ़ा जयपुर रहे थे और मुझे यह सौभाग्य मिला कि यहां मैं लगभग शुरू से ही उनके सान्निध्य में रहा। एक मित्र के माध्यम से परिचय हुआ था, फिर उस मित्र से अधिक निकटता मेरी उनसे हो गई। बढ़ती उम्र के साथ-साथ बिमारी से उनका शरीर उनका साथ नहीं दे रहा था और वे पूर्ण रूप से एक कमरे में सिमट कर रह गये थे। उनकी दुनिया वही तक सीमित हो गई थी, एक नौकर के भरोसे जो बदलते रहते थे। एकांत में अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी जब तक उनकी मस्तिष्क की चेतना साथ देती रही, वे पढ़ते रहे, लिखते रहे, अवस्थ्यता के कारण उनके हाथों की उंगलियां काम नहीं करती थी तो लिखने में उन्होंने मुझे अपना सहायक बना लिया। वे बोलते रहते और मैं कागज पर उनकी साहित्यधर्मिता को मूर्त रूप देता रहता था। अपने निजी मित्रों को पत्र लिखवाना, पुराने नोट्स जो उन्होंने कभी पहले अपने हाथों से लिख रखे थे उनके आधार पर पाण्डुलिपियां तैयार करवाना आदि। वृद्धावस्था के कारण उनको सुनाई कम देता था परन्तु आंखें और याददाश्त उनका साथ दे रही थी। उन्हें यहां तक याद रहता था कि कौनसी किताब के किस पेज नम्बर पर क्या लिखा है। लेकिन शरीर बेजान हो गया था। पुराने दिनों को याद करते हुए कहते थे कि मेरी असली पूंजी तो वह है जो मैंने लिखा है। सारे रिश्ते-नाते, धन-सम्पदा बेमानी है जो एक दिन यहीं रह जायेंगे। वे अक्सर गुनगुनाते हुए कहते थे कि ''सब ठाठ पड़ा रह जायेगा, जब लाद चलेगा बंजाराÓÓ

पत्नी की मृत्यु के बाद वे टूट गये अक्सर यह बात बातों ही बातों में कहते थे कि उसके जाने के बाद अकेला हो गया हंू। ऊ ंचा सुनने के कारण उनके कई परिचित व मित्र जिनके नाम बहुत बड़े हैं मैं लेना नहीं चाहंूगा, उनके फोन काट दिया करते थे या रिसीव ही नहीं करते थे। इस पर वे उदास हो जाते व कहते कि अब मैं इन लोगों के काम का नहीं रहा हंू। क्योंकि अब मैं किसी कमेटी में नहीं हंू, कोई सत्ता मेरे पास नहीं है ये क्यों बात करेंगे मुझसे। अपने जीवन सूत्र को मुझसे उन्होंने यूं बांटा था- धर्म न अर्थ न काम रूचि, गति न चहौं निरवाण, जनम जनम गति वाक में ,यह वरदान न आन।जयशंकर प्रसाद और सूरदास उनके प्रिय कवि थे, इनके ऊपर उन्होंने भरपूर लिखा भी। कामायनी पर उनके अद्भुत व्याख्यान के चर्चे तो मैंने कई लोगों के मुंह से सुने हैं। साथ ही आध्यात्म उनका प्रिय विषय था, स्वामी प्रत्ज्ञात्मनांनद सरस्वती जी से गुरूमंत्र लेने के बाद वाक श्रृंखला लिखी- वाक तत्व ,वाग्विभव, वागदोह, वागद्वार वागमिता, वाकपथ, वाकसिद्ध आदि। उनक ी अंतिम पुस्तक दिव्य प्रतीक पिछले वर्ष ही प्रकाशित हुई जिसकी पाण्डुलिपि तैयार करने का मौका मुझे प्राप्त हुआ था। वे मुझे अक्सर कहा करते थे कि अब तू मेरा शिष्य है, मेरा अंतिम शिष्य, मेरा मानस पुत्र है, आज मेरे शिष्य मुझसे बात भी नहीं करते हैं। उनके पास आए कई सिफारिशी पत्र मैंने उन्हें पढक़र सुनाए थे, विशेषकर पुरस्कारों को दिलवाने के लिए कि आप मेरी सिफारिश करें, तब वे दु:खी होकर कहते थे कि क्या भूख जग पड़ी है लोगों में कि पुरस्कार लेने के लिए भी सिफारिश की बात करते हैं। अपने जीवन के कई ऐसे प्रसंग हुए कहते थे कि ये सिर्फ मैं तुझे बता रहा हंंू, पता नहीं तुझसे मेरा पिछले जन्म का कोई रिश्ता रहा होगा। उन्होंने कहा था कि दिनेश, पहली बार तुम्हें बता रहा हूं, मंचों और व्याख्यानों में गुरू और सरस्वती को याद करके ही बोला करता था। उनका मुझ पर स्नेह और मेरा स्नेहाधिकार ही कहूंगा कि उनके सेवक कु छ मनवाने के लिए मुझसे आग्रह करते थे, मेरी स्मृति में उन्होंने मेरा आग्रह टाला भी नहीं। हिन्दी साहित्य का यह पुरोधा अपने -आप में एक जीता-जागता साहित्यिक कोष था। उनके सान्निध्य में अहसास हुआ कि उन्हें बंगाल में हिंदी का भागीरथ व्यर्थ ही नहीं कहा गया। उनके प्रिय रचनाकारों की रचनाएं तो उन्हें मुख जबानी याद थी। जब बोलते थे तो मुझे अपने जीवन में पहली बार किसी व्यक्ति के लिए ऐसा लगा कि साक्षात सरस्वती कण्ठों पर विराजने का मुहावरा इनके लिए ही बना है। पर अफसोस उनकी एक हसरत बाकी रह गई, वे चाह रहे थे कि एक पुस्तक उनकी और मेरी साथ में छपे परन्तु यह हो नहीं सका, उनकी चाहत अधूरी रही और मेरा दुर्भाज्य, इसका मुझे दु:ख है। पर उनका इतना सुखकर एवं गौरवपूर्ण सान्निध्य ही मेरे लिए जीवनपर्यंत अक्षय निधि नहीं है क्या?

1 comment:

दुलाराम सहारण said...

आप भाग्‍यशाली हैं कि लोढ़ाजी का सान्निध्‍य मिला।

आपका भावनात्‍मक आलेख अच्‍छा बन पड़ा है।

जीवन की यही विडम्‍बना हैं कि बिना काम सधे कोई पास नहीं फटकता।
आपने अंतिम दिनों में निस्‍स्‍वार्थ भाव से लोढ़ाजी का सहचर किया, यह आपका अच्‍छापन है।


युगों के बाद लोढ़ाजी जैसे व्‍यक्ति पैदा होते हैं, हमें अभिमान रहेगा, उन पर।


सादर