Saturday 22 November, 2008

मेरी कहानी


मेरी ये कहानी डेढ़ साल पहले राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित हुई,अक्टूबर 2007 में कहानी स्नेह से दुर्गाप्रसाद जी ने वेब पत्रिका इन्द्रधनुष इंडिया पर प्रकाशित कर दी थी.. आज कहूँ कि पहली कहानी पर इतनी सुखद और प्रिय प्रतिक्रियाएं मिलीं कि अभिभूत हुआ..मित्रों के लाख कहने पर उसके बाद से लिख नहीं पाया ..मित्रों ने उलाहने दिए हैं कि माननीय चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की तरह से एक कहानी से महान होना चाहता हूँ..शायद ये उलाहने और..ताने कुछ और बेहतर लिखवादे तब तक..एक बार फ़िर वही कहानी आपके सम्मुख प्रस्तुत है ..

कामायचा

शायद रत्नाकर के गर्भ से एक नयी सभ्यता का उदय हो रहा था, या मानव सभ्यता की सृष्टि-आज फिर कोई वराह पृथ्वी को उबार रहा हैं। मनु की तरह निर्जन में बैठा सुगना अपने झौपड़े की फुनगी की टोह ले रहा था, कि कब पानी उतरें और सिर ढ़कने का आसरा मिले। चिन्तामग्न सुगना की स्थिति जल प्लावन के बाद हिमालय पर बैठे शोक संतप्त मनु जैसी थी। फर्क था तो बस इतना कि मनु हिमालय पर्वत पर थे और सुगना रेत के टीबे पर। यह फर्क तो होना ही था, क्योंकि एक सृष्टि का नियन्ता था और दूसरा नियति।आठ दिन पहले पानी को तरसने वाले इस रेत के सागर पर काली घटाएं छायी थी। जेठ की गर्मी से झुलसी घरती को राहत मिली, सूखते पेड़ों में एक नयी चाहत जगी, मानवीय जिजीविषा हरहराने लगी। सुगना का आठ साल का पोता करमा दौड़ा-दौड़ा आया और कहने लगा - 'बाबा बादली आयी है, मेह आवैला।' साठ साल के सुगना ने अपने जीवन में ऐसी अनगिनत बदलियों को देखा था जो तृप्त न कर तृषित करती हुई चली गई। कई बार कामायचा लेकर मल्हार गाया पर बदलीर हर बार रूठ कर चली ही गई। पानी को तरसने वाले इन लोगों की नियति में यही बदा थी। बदली को आते देख बाछें खिल उठती थी और बिजलियों की चमक ऑंखों में चमक उठती थी, लेकिन बिना बरसे ही अपने साथ लाये पानी को वापस ले जाते देख बची रह जाती थी इनकी ऑंखों में निरीहता, निराशा । क़रमा झोंपड़े में से कामायचा ले आया ओर तारों को झंकृत कर गाने लगा - 'रिमझिम बरसों बादली इण धोरां वाले देश ।' संध्या आज दो घड़ी पहले ही आ गई है, बादलों के कारण । क़रमा कि उंगलियों को कामायचे पर साधते हुए, बजाने के गुर समझाते हुए सुगना अपने पुरखों से प्राप्त थाती अपने पोते के सुपुर्द कर रहा है। परम्परा का निर्वहन करते हुए, पूर्वजों के ऋण से उऋण हो रहा हैं । सुगना की कई पीढ़िया कामायचा बजाकर गीत गाकर अपना पेट पालती आई है। इस परिवार के लिए भी कामायचा कमाई की कामधेनु है। बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की कौंध के साथ बारिश की बूंदें गिरने लगी। सुगना का मन हरसाने लगा, अबकी बार कई वर्षो से नही निपजी धरती पर बाजरी और मोठ के अंकुर सुगना के हृदय में फूटने लगे। इस आशंका के साथ कि अगली बारिश कैसी होगी ? तभी रमली गरमागरम गुलगुले (गुड़ के पकोड़े ) ले आयी, करमा हाथ से ही झपटकर खाने लगा। रमली आकर पास में बैठ गई और सुगना से बतियाने लगी - 'अबकी रामजी किरपा करैला।' आज रमली की ऑंखों में चमक थी, चेहरा खिल गया, उस दिन की तरह जिस दिन सुगना से ब्याही थी।
क्योंकि इन लोगों के लिए बारिश उपहार से कम जो नहीं है। बारिश होते दो घड़ी हो गई है, आज कई बरसों बाद बरसा है इतना पानी और बरस रहा है, इतना बरसा कि सुगना ने अपने जीवन में आज तक नहीं देखा।
''दिन उगै कोठा में पड़ी बाज़री निकाल ने देख लीजे कठै जीव तो नीं पडग्या है'' कुदाली और कवाड़ी (कुल्हाड़ी) निकाल देने की बात कहकर अमृत बूंदों का स्पर्श पाता सुगना पास के झोंपड़े में सोने चला गया। फूस से छाया, गारे से बना झोंपड़ा बरसात के पानी को अन्दर आने से रोकने में सक्षम है । क़ितनी जबरदस्त तकनीक है उन पूर्वजों की जिन्होंने झोंपड़े बनाने की कला का इजाद किया था। फूस की छावन को ढ़ाल उतारकर इस तरह व्यवस्थित कर रखा कि बारिश का सारा पानी ढ़लकर नीचे आ जाता है।
शुक्ल पक्ष की चौदस (चतुर्दशी) की रात भी आज अमावस (अमावस्या) सी लग रही थी क्योंकि चांद को तो अपने ऑचल की ओट में रखा था बादलों ने। आधी रात ढ़लने पर रमली नवोढ़ा की तरह सुगना के पास आयी और कहने लगी 'आज इन्दर राजा रूठगों है, बरसात रूकण रो नाम नी लेवे बरसती जावै है।' 'बावली इन्दर रूठियों कोनी राजी व्हेगो है, अबकी खेतां में चोखों धान निपजैला।' पास ही बाड़े में बंधी गायों और बकरियों की रंभाने की आवाज आ रही थी जो बारिश से भीगकर ठिठुर रही थी। आस-पास से कुत्तों और सियारों की क्रन्दन भरी भयानक आवाजे आ रही है, शायद इन मूक पशुओं की वह अदृश्य इन्द्रि जाग गयी हैजो इन्हें प्राकृतिक आपदा से पहले आभास करवा देती है। 'कुत्ता स्यालियाँ कुरलावै हैं कोई न कोई विपद आवेला' कहते हुए रमली सुगना की बाहों में सिमट गई। दिन निकला बारिश रूकी नहीं एक दिन दो दिन पूरे तीन दिन बारिश होती रही, कभी झिरमिर-झिरमिर तो कभी तेज बौछारों के साथ ग़ाँव में पानी इकट्ठा होता दिखाई देने लगा। जो रेत बरसों से प्यासी थी इतनी तृप्त हो गई लगता है उसमें से ही पानी का स्त्रोत फूट पड़ा हो।
अचानक रात मे अरे सुगना दौड़ बाढ़ आयगी हैं धरमा, ईसरा,गणेशा, दौड़ों रे दौड़ों । अपने-अपने घरों से बच्चों -बूढ़ों के साथ लोग सामान लेकर रेत की टीबों पर भागने लगे है, बाढ़ का पानी गाँव में आ गया है। इस काली रात में कई लोग टीबों पर पहुंच गये और बाकी बाढ़ में घिर गये बह गये, बिछुड़ गये शायद हमेशा की लिए। लोगों की जाग होती तब तक तो बाढ़ ने गॉव को घेर लिया था। सुगना सामान लेकर टीबे की ओर दौड़ा जैसे ओलम्पिक का धावक दौड़ रहा हो रमली, बेटे-बहुओं को जल्दी सामान लेकर आने का कहते हुए। मौत के डर ने साठें सुगना में भी स्फूर्ति ला दी थी। मनुष्य डरता केवल मौत से ही है अगर मौत का डर न हो तो प्रकृति का यह निष्ठुर जीव
प्रकृति की सत्ता को ही ठुकरा दे भगवान को ही न माने उसे भी चुनौती दे डाले, पशुओं से भी ज्यादा हिंसक व क्रूर हो जाये। सुगना टीबे तक पहुॅचा तब तक तो बाढ़ विकराल रूप से आ गई थी। सुगना रमली को आवादेता हुआ, झौंपड़े की ओर भागा पर पानी के वेग ने आगे नहीं बढ़ने दिया। सुगना चिल्लता रहा पर पानी के कोलाहल में सुगना की आवाज दब गई। प्रकृति की आवाज में मानव की आवाज कहा तक जा पाती ? दिन उगने वाला था सूरज की प्रतीक्षा से ज्यादा आज सुगना को रमली और बच्चों की प्रतीक्षा थी, परन्तु यह प्रतीक्षा चिर प्रतीक्षा में तब्दील हो गई सारा गॉव काल कवलित हो गया था क़ुछेक लोग टीबों पर पहुंच गये थे। रेत का दरिया आज पानी के दरिया में तब्दील था।
जहां कभी पीने के पानी को लोग तरसते थे, वहां आज पानी का अथाह सागर दिख रहा है। टीबें पर बैठे सुगना की स्मृतियां ताजा हो रही है छ: कोस दूर से ऊटों पर लादकर पानी लाता था। रास्ते में कोई हरियल वृक्ष नहीं जिसकी छाया का आसरा तपती धूप में ले सके, थे तो कुछ खेजड़ी के वृक्ष जो वैशाख - जेठ में ठूंठ हो जाते हैं। ऊंट को रमली के हाथों से गुंथे रंग-बिरंगे धागों से बने गोरबन्द का सिंगार कराके पौ फटने से पहले सुगना पानी लाने निकल पड़ता था। दो छांगल ऊंट की पीठ पर टांग हाथ में पुरखों की निशानी कामायचा लेकर । समुद्र में दिखने वाली पानी की लहरों के समान ही इन रेत के टीबों पर हवा के वेग से लहरें बनी हुई थी, उनको पार करते हुए पानी लाने जाता था। आते वक्त पानी से भरी छांगले ऊंट की पीठ पर होती थी और सुगना ऊंट की मोरी गले में डाले आगे-आगे चलता कामायचा के तारों को छेड़ रास्ते को छोटा करता रहता था। जिस जगह पानी की जबरदस्त कमी थी, गर्मियों के दिनों में सूरज की किरणों से मृगमरीचिका में पानी का आभास करने वाले लोगों के सामने आज रेत से बनी लहरे नहीं पानी की लहरें हिलौंरें मार रही थी। वह पानी जो बादलों से बरस कर भी खारा हो गया था। खारा तो इस कारण कि सुगना जैसे अनेक लोगों की आंखों से बहा करूणा का पानी इसमें मिल जो गया था। वर्षो से अकाल की मार झेल रहे, पानी को तरस रहे, जिजीविषा से जूझ रहे इन लोगों ने सोचा भी नहीं होगा की सुकाल पड़ेगा और इतना भयंकर की अकाल की मार को भी दबा देगा। इस सुकाल से तो अकाल ही भला था इन जलतृषित लोगों के लिए। इनके जीवन में पानी में कभी डुबकी नहीं लगाई उन्हें डूबो ही दिया। जिन्दगी का सारा स्नान अन्तिम स्नान के रूप में कुदरत ने ही करवा दिया। शायद उन्हें अब पानी देने की भी जरूरत नहीं क्योंकि पानी देने वाला बचा ही तो नहीं।
किसी के बचने की तो गुंजाइश ही नहीं थी। सारा गाँव डूब गया, झोंपड़ों के ऊ पानी फिर गया था, गॉव का नामों-निशान नहीं दिख रहा था। सुबह खेजड़ी के पेड़ के नीचे गीले कपड़ों में सुगना अचेत पड़ा है बारिश की बूंदा-बादी भी उसे सचेत नहीं कर पा रही है। बाढ़ के पानी को देखकर लग रहा है कि सारी पृथ्वी जल प्लावित हो गई है। खेजड़ी पर बैठी ठिठुरी टिट्हरी की टी-टी से सुगना की मूर्छा टूटी तो आंखों के सामने अथह समुद्र देखकर आंखे जमी सी रही गई, दिल दहल गया चारों और नजर फेरी तो पानी ही पानी आदमी जात की चीज तक नहीं दिखी, जानवर तो दूर की बात है। दिन निकल आया था सुगना जान गया कि सब कुछ चला गया है, कुछ भी नहीं बचा है। रमली की बातें याद आने लगी की इन्दर राजा रूठगो है। शायद रमली को पहले ही पता चल गया था।
खाली पेट पथरायी आंखों के साथ दो दिन हो गये है सुगना खेंजड़ी के पेड़ के नीचे बैठा है अतीत की यादों को लिये। घर से जो सामान बचा लाया था उसमें पुरखों की थाती कामायचा भी था। अकेलेपन में यह कामायचा ही उसका साथी है। पानी की थाह कितनी है सुगना को पता नहीं। तीसरे दिन बचाव दल का हैलीकाप्टर वहां से गुजरा तो सुगना पर उनकी नजर पड़ी। खाने के पैकेट गिराकर हैलीकाप्टर चला गया। चार दिन बीत गये पानी उतरा नहीं। रेत के नीचे जिप्सम की परत थी जो पानी को नीचे जाने से रोके हुए थी। बचाव दलों के सारे कयास धरे रह गये कि रेत पानी सोंख लेगी व पानी जमीन में उतर जायेगा। छठे दिन कुछ पानी उतरा और आदमी जात का नामों निशान सुगना को नजर आने लगा। बचाव दल के लोग उसके पास आये व रोते सुगना को ढांढ़स बंधाने लगे कि लोगों को बचाया है उनमें शायद तुम्हारे परिवार के लोग भी हों। वे पानी उतरने की बात आपस में कर रहे थे कि सुगना बीच में बोल पड़ा 'नीचे खड्डी है पाणी कोनी छुवै'। तब इन आधुनिक भूगोलवेताओं को समझ आया कि नीचे जिप्सम की परत है, उसे छेदे बिना पानी नहीं निकलेगा।
धीरे -धीरे पानी कम होने लगा, सुगना टीबे पर बैठा अपने झोंपड़े की टोह ले रहा था कि शायद उसमें रमली और बच्चे किसी तरह से बचे हों पर यह भ्रम था सुगना का, उस व्यक्ति का जो घोर निराशा से घिरने के बाद भी आशा की किरण का इंतजार करता है। बेसहारा आदमी कहीं न कहीं तो सहारा तलाशता है। सुगना को सहारा मिला कामायचे से। आज कई दिनों के बाद सुगना ने कामायचा बजाया है। पानी से भीगने के बाद कामायचे के ऊपर मंढ़ी खाल फूल गई थी, फिर भी कामायचे के पारखी सुगना ने तारों को कसकर झकृत कर दिया। सुगना गाने लगा, 'कुरजां ऐ म्हारौं भंवर मिलाय द्यों नी । सुगना के कण्ठ से दर्द फूट पड़ा, अंतस में हिलोरे लेता दु:ख का समुद्र गाने के साथ बाहर निकल रहा है। गाते-गाते सुगना की आंखों में अतीत दौड़ पड़ा। इसी कामायचे के साथ उसने जब रंगायन के मुक्ताकाश में गाना शुरू किया तो खचाखच भरें रंगायन में लोग थिरकने लगे थे, हर एक मुग्ध होकर सुगना को निहारते हुए सुन रहा था, विदेशियों ने दाद देते हुए नोटों की बरसात कर दी थी और आज का दिन जब उसका दर्द जाग पड़ा और सुगना गा रहा है मन से पर सूनने वाला कोई नहीं है। पर है उसका साथी कामायचा, क्योंकि जीवन में उसके सिवा उसका कुछ बचा ही नहीं था।

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